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Krishna Kumar

Abstract

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Krishna Kumar

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आज़ाब ओ ग़म का ज़माना

आज़ाब ओ ग़म का ज़माना

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ये आज़ाब ओ ग़म का ज़माना भी

ना जाने क्या ज़माना है,

तुझे दरिया भी बर्तनों में छुपाना है,

हमें कतरा भी धूप से बचाना है।


पहाड़ों के साए महफूज बैठा है तू,

बियाबान तो अभी बेपनाहों को बसाना है।


जरा हवाओं ने हाल क्या पूछ लिया,

लगा के खुशबुओं के शहर में ठिकाना है।


हमें मार कर लोग माफी मांग लेते हैं,

ये नज़ारा तो अब रोज़ रोज़ाना है।


ये बेबसी तेरे कानों में गूंजी ही नहीं,

अभी ख़ामोशी को बहुत शोर मचाना है।


तिनके की आहट पर ही कान दुखने लगे,

अभी तो सैलाब ओ कयामत को भी आना है।



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