होलिका दहन
होलिका दहन
आज होली मे उड़े रंगों की फुहार,
देखो अपनों के प्यार की बहार,
सतरंगी हो जाता है सारा संसार,
ऐसे मे होलिका जी दुःखी बेचारी,
सुनाये सबको आज व्यथा न्यारी,
जलती आई मैं हर साल से यहाँ,
रिश्तों को मैंने कर दिया स्वाहा,
अग्नि देव का वरदान था मुझे,
भस्म ना हो ऐसी काया थी मेरी,
पर बुराई तो हर युग मे राज करती,
भ्राता हिरण्यकश्यप मति ना भ्रष्ट होती,
नारायण तो युगों से है सबके दाता,
यही बात समझ ना पाया भ्राता,
अपने ही लाल को सबक सिखाने चला,
ऐसा अहंकार का क्रूर खेल चला,
प्रहलाद तो नरहरि का भक्त था प्यारा,
क्या बिगाडे उसका गज औ
र गिरी की माया,
नारायण नारायण जपते हुए वो,
बालक सदा अविचलित रहता था,
मानों यमराज भी उससे कतराता था,
फिर आई एक ऐसी घडी,
जिस पितृ भगिनी ने गोद मे खिलाया,
उसी ने बालक को लपटों पर सुलाया,
पर अजब थी नियति की चतुराई,
जला ना बालक, भस्म हो गई होलिका,
खुशियों मे उड़ने लगे गुलाल अबीर,
इंद्रधनुषी रंग से रंगा संसार,
होलिका कहती जग से,
तुम कभी ना करना,रिश्तों को ऐसे स्वाहा,
देखो, हर साल मुझे जग जलाता,
एक साल भी भूल ना पाता ,
याद सदा तुम रखना,
बैर कितना भी हो पर होली मे भूल जाना,
अपनों के संग जम कर रँग खेलना....।