होली ? हो-ली ?
होली ? हो-ली ?
देख रहा हूँ शुभकामनाएं बाँटते हुए सारी दुनिया को,
कहीं रंग के चित्र तो कहीं तस्वीरों में मिठाइयों को।
सोच रहा हूँ क्या इतना ही अर्थ है हमारी होली को,
या बुझ गया है सामर्थ्य सुलझाने का पहेली को।
कभी पूछा है जाकर अपनी उन सहेली को,
जो खेल रही है बरसों से सफ़ेद रंग की होली को।
देखे हो जाकर कभी उस सूरत भोली को,
कितनी तड़पती है वह लगाने माथे पर उस रोली को।
कभी पूछा है जाकर शहीदों की जन्मदात्री को,
जो भर रहीं है अश्रुओं से खाली झोली को।
भरें हो जाकर कभी उन अश्रुओं में मुस्कान को,
जो अधर खो बैठें थे मुस्कुराहट के उन रंगो को।
कभी पूछा है सड़क पर रह रहें उस फ़क़ीर को,
जो भूल चूका है छूना रंगों से भरी थालियों को।
ले गए हो खुशी के रंग लगाने कभी उस ग़रीब को,
जो जी रहा है बेबसी से भरी बेरंग ज़िंदगी को।
कभी समझना ही नहीं चाहा हमने होली के अर्थ को,
इसीलिए तो समझते रहें त्योहार रंगो का हम होली को।
हो-ली के नज़रिए से देखते यदि हम होली को,
हर कोई हो-ली कहकर मना पाता होली को।