हम क्यों हैं ?
हम क्यों हैं ?
हम क्यों हैं
और किस लिए जी रहे हैं,
यह अंधेरा
सिर्फ रात का नहीं
हम सदियों से इसे जी रहे हैं।
निरर्थक ही मन लिए
गली-गली से गुजर रहे हैं।
रिश्तों के टूटने का
भ्रम ही क्यों
जब खानाबदोश जिंदगी जी रहे हैं।
चेहरे पर सहमी-सहमी सी लकीरें
अपने ही घर से
बहुत दूर जिंदगी जी रहे हैं।
दुल्हन-सी सजी थी
यह बस्ती कभी
अब उजाड़-सी जिंदगी जी रहे हैं।
तस्वीरें धुंधली-धुंधली
और काफिले गुजर रहे हैं,
पर यह अभिमान भी कैसा
हम टुकड़े-टुकड़े
जिंदगी जी रहे हैं।
