STORYMIRROR

Surendra kumar singh

Abstract

4  

Surendra kumar singh

Abstract

हिलते हुये अंधेरे के स्पर्श

हिलते हुये अंधेरे के स्पर्श

1 min
361

दिन का उजाला है या रौशनी की बाढ़

मेरी समझ मे तो कुछ भी नही आ रहा है

मेरे सामने तो अंधेरा है

मेरे तो चारों ओर अंधेरा है


गहरी घनी खामोशी

मुझे तो कुछ दिख नही रह है

भागती हुयी कठपुतलियों की

परछाइयों के सिवाय


कांपती हुयी परछाइयाँ

झिलमिलाती हुयी परछाइयाँ

आपस मे कानाफूसी करती हुयी

कठपुतलियां

एक दूसरे से टकराती हुयी कठपुतलियां।


व्यस्त बाजार है

व्यस्त बाजार के व्यस्त चौराहे पर कविता है

मुझे तो कुछ दिख नही रहा है

भागती हुयी कथपुलियों की परछाइयों के सिवाय

हाँ आवाजें उभर रही हैं।


स्पष्ट बिल्कुल स्पष्ट

भागती हुयी कथपुलियों की

देखो वो कविता है

कविता नहीं है यार

सूचनाओं का जंगल है

हमारी स्पष्ट तस्वीर है।


व्यस्त चौराहे पर खड़ी है

खुदा की कसम ये कयामत है

हमारा सारा खेल तबाह करेगी

हमारे राजा को गद्दी से उतरेगी

रियली इट इज डेंजरस टु अस।


Rate this content
Log in

Similar hindi poem from Abstract