हे शिव
हे शिव
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ऐ पत्थर तुम पिघलते कब हो
कब तुम्हारी रूह कांप कर दरकती है।
कब तुम्हारा अंतर्मन फूट कर रोता है।
कब धरती के बोझ होने का एहसास होता है।
जब हवाओं का आंचल लहराता है तुम पर,
और ये घटायें नगाड़ो की धुन से प्रेरित करती हैं।
तब भी क्या तुम ऐसे ही मौन पड़े रहते हो,
निर्निमेष टकटकी बांधकर।
क्या तुम शिव हो ?
वह भी तो मौन रहते हैं।
न बोलते हैं न पिघलते हैं,
बस चुप रहते हैं।
बस सति को नेत्रों मे भर कर,
विरक्त होकर जीते हैं।
बोलो न क्या तुम शिव हो ?
बोलो न।