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Bhawna Kukreti Pandey

Abstract

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Bhawna Kukreti Pandey

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हद है!

हद है!

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थकी बेदम सी

चलती साँसे 

देख कर कोई रोज 

आफिस की मेज पर 

कांच के नीचे दबी

हॉलीडे लिस्ट 

शिकायत करती हैं

खुद को कहीं रख कर 

क्या भूल आये हैं हम! 


वो एक लिस्ट, 

जो बस वहीं है दिन रात

मगर वो सबकी चहेती भी है 

जिसपर साssssल भर की

छुट्टियां है छपी हुई

नजरें बार बार जिसे ढूंढती है

मगर हम भी तो 

वैसी ही लिस्ट हैं

जो उसकी तरह कहीं नहीं जाती

मगर घूमती रहती है 

जिंदगी की बिसात पर 

वक्त की चाल 

चलने तक!


कभी कभी लगता है 

सूरज भी हमसे

उकता गया है

अब वो भी चुपचाप उगता 

और डूब जाता है

बेपरवाह सी नजर

लिये कि इसे 

जब न दिन का चस्का

न सांझ की आस


तो क्या इसे जगाना 

क्या इसे सुलाना

जब देखो बस घुसी पड़ी है

घड़ी की चरखी में

गिनी पिग सी

लोगों से सुनी 

उस एक अनदेखी

नामालूम

मंजिल की दौड़ में।


बहरहाल 

कभी कभी 

ये सिर्फ अपना ही नहीं

हर दूसरे का हाल लगता है

जो रख रहा है बैलों के

जुए का एक हिस्सा सा

अपने कांधों पर

अपने साथी के साथ

भविष्य के लिए।


सो अब 

किससे कौन कहे 

और कौन किसकी सुने 

कि सब अपने ही

सर हाथ पैरों को 

उलझाए हुए 

अपने ही

दिलो दिमाग में

बड़बड़ाते, बिखेरते 


जज्बात, 

यहां वहां

बेतरतीब होते हुए

और भी भटक जाते हैं

चाह में

सिर्फ और सिर्फ 

अपनों के लिए।


फिर कुछ दिनों 

महीनों साल बाद 

एक रोज

किसी आंगन में

देख कर वो सुकून के पल

साँसे भी 

शिकायत करती हैं

खुद को कहीं रख कर 

क्या भूल आये हैं हम!


यार! वाकई

खुद को कहीं रख कर 

भूल आते हैं हम/आये हैं हम

मगर फिर..

वही हम 

वही हमारे अपने

और फिर

वही सब पैटर्न

जो जरूरी भी है।

हद है !


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