हौnonstop hai सलो की परी
हौnonstop hai सलो की परी
एक परी मिली थी सपनों के शहर से,
कुछ सहमी सी लगी मुझे अपनो के कहर से
बैठी थी खयालों की लड़ियां सजाके,
उमंगों की ऊंची डगर को बचाके
आंखो में उम्मीदों की चमक को छुपाके,
अनकहे लफ्जों को मन ही में दबाके
जैसे पुरानी सी यादों में सिमटी हुई थी
मानो अनगिनत सवालों में लिपटी हुई थी
न जाने क्यों इतनी उलझी हुई थी
परी ही थी पर न सुलझी हुई थी
मैंने पूछा तो बोली, 'खुद को समझने बैठी हूं
अपने ही अस्तित्व को परखने बैठी हूं
खोज दुनिया में रही थी अब तक खुद ही को,
अब अपने आप में ही कुछ देर झांकने बैठी हूं'
'जब जान लूंगी स्वयं को दर्पण की तरह,
पहचान लूंगी वजह मेरे अस्तित्व की यहां
तब लौट आऊंगी में अपनो को सिखाने,
ऊंची उड़ानों की सच्चाई को दिखाने'
'झूठा नही होता किसकी ख्वाबों का शहर,
बस बहा देती है कभी उन्हें ये वक्त की लहर
बस इसीलिए रोक रखा है खुद को अभी,
सपनो के शहर को मेरे सच मानेंगे सभी'
'हौसलों के पर्वत को वक्त की कैसी चिंता
अचल इरादों से भरा समंदर है दिल का
में तो बैठी हूं इस वक्त को ही निहारने,
इससे खुद की थोड़ी पहचान बढ़ाने'
'ना समझना के अभी में हारी हूं
में तो अब भी अपने शहर की रानी हूं'
सुन के उसके इन वचनों की वाणी,
उम्मीद सी मुझ में भी जगी सुहानी
जिसे समझ रहे थे हम उलझनों से हारी,
वो तो हर प्रश्नों का उत्तर है हमारी
अब मुझे अपने शहर की हर परी को,
ये कहानी है सुनानी
भरोसा हारी हर नारी को,
ये समझ है दिलानी
आखिर नारी ही तो परियों की परछाई है
तो क्यों आज हौसले को अपनी ये हारी है
नारी वक्त से लड़ के पहचान बनाती है
और ऐसी ही नारी तो फिर 'परी' कहलाती है !
हां एक परी ही मिली थी मुझे सपनों के शहर से
पर बुलंद सी थी वो हौसलों के लहर से..!!
