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Ankit Tripathi

Abstract

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Ankit Tripathi

Abstract

हैसियत घट रही है

हैसियत घट रही है

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मस'अले बढ़ रहे ये हैसियत भी बँट रही है

उम्रों में जिंदगानी भी जरा सिमट रही है।


दरख़्त की छाँव भी अब देखी नहीं जाती

जिंदगी को कटनी थी और कट रही है।


ख़िज़्र-ए-उदासी कुछ इस तरह फैली हुयी है,

खामोशियाँ किस खुशी में हमसे लिपट रही है।


तुम मेरी तकदीर में नहीं हो जानता हूँ मैं,

पर तेरी याद मेरी बुनियाद में सिमट रही है।


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