हाड़ मांस का लेकर काँसा
हाड़ मांस का लेकर काँसा
भीख मांगता फिरे बुढ़ापा,
हाड़ माँस का लेकर काँसा।
दो बीघे खेती पुश्तैनी
पास धरी गिरवीं बनिया के।,
हाथ हुए तब जाकर पीले ,
किस्मत की खोटी धनिया के
पोते, बहू साथ बड़कन्ना
गया मुंबई देकर झांसा।
भीख मांगता फिरे बुढ़ापा,
हाड़ माँस का लेकर काँसा।
राह पकड़ ली , छुटकन्ने ने,
गांजा भाँग अफीम चरस की।
दिखने लगा अधेड़ अभी से,
उमर महज है तीस बरस की।
झरे पात सब, ठूँठ हुआ तन
जब देखो तब करता खाँसा।
भीख मांगता फिरे बुढ़ापा,
हाड़ माँस का लेकर काँसा।
बुढ़ऊ भी पड़ गए खाट पर ,
झेल न पाये दुर्गति घर की।
घिसट घिसट कर चले दो बरस,
शरण अन्ततः ली ईश्वर की।
ज्योति बह गयी नयन नीर सँग,
दिखे हर तरफ धुआं धुआं सा।
भीख मांगता फिरे बुढ़ापा,
हाड़ माँस का लेकर काँसा।
बचे खुचे दिन लाठी बनकर
झुकी कमर को, दिए सहारा।
पेट सहम कर सटा पीठ से,
हठी भूख कर रही इशारा।
बँधी आस से प्यास निहारे
पर निष्ठुर जग शुष्क कुआं सा
भीख मांगता फिरे बुढ़ापा,
हाड़ माँस का लेकर काँसा।
