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Disha Singh

Abstract

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Disha Singh

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गुज़रा ज़माना

गुज़रा ज़माना

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बालकॉनी के सामने रखे हुए किताब 

तेज़ हवा के झोंके से गिर गये

सन-सन पलटते पन्नों शोर में

कुछ पुराने तस्वीर मिल गए

अभी तो शुरू ही किया था पढ़ना कि

हलचल से बिख़र गये। 


जब देखा तो चेहरे पे हल्की हँसी आई

गुज़रा वक़्त मनो फिर से पुकार रहा हो 

पर घड़ी की टिक टिक ने वक़्त वहीं रोक दिया

ये कहकर कि उन्हें फिर से छुपा दो।


 कितने बेहतरीन थे वो लम्हें

जिन्हें मैं खुद से दूर कर चुकी थी 

एक एक कर कोनों से उन्हें समेट रही थी 

कह रही थी मुझसे 

कोई न रोके इसे जाने दो

आज़ाद हवाओं में उड़ने दो।


 फिर दिल ये कहता है

क्यों ना उस वक़्त को इस वक़्त में जी ले

तमन्नाओं को यही पूरा कर ले 

गुज़रे ज़माने के पतझड़ को  

ख़ुशियों के सावन से रंग दे।


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