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Surendra kumar singh

Abstract

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Surendra kumar singh

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गतिशील तो है

गतिशील तो है

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निराशा के जंगल में

ठहरी हुयी उदासी

और इस उदासी में उलझनों का शोर,

एक मुकम्मल दबाव जीवन पर


जीवन विरोधी भावों का

ऐसे में भी हम

अपने को धन्य समझते हैं प्रिय भारत।


खुद को तुम्हारे पास होने के एहसास का

असर तो देखो

आदमी,आदमी बनने पर आमादा है

मुक्क्त कर रहा है


खुद को राजनैतिक,

और धार्मिक बन्धनों से

जैसे ये उसके लिए नहीं

कुछ लोगों के स्वार्थ में डूबे हुये हैं।


आदमी का आदमी से प्यार न होना

न कोई राजनीति है,न कोई धर्म है

है तो अपना नहीं है

अपना है सिर्फ तो केवल तुम्हारी भारतीयता।


तुम्हारी भारतीयता

आदमी को आदमी

बनने की शक्ति दे रही है।

एक शक्ति है

आज के चलते हुए युद्ध में

बिना युद्ध लड़े विजयश्री पाने की

एक शक्ति युद्ध टालने की।


एक शक्ति भारतीयता की

दुनिया से इंसानियत को बचा पाने के

लिये सक्रिय तो है

गतिशील तो है आदमी की तरह

उसको आदमी बनने की कोशिश में।


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