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संजय असवाल "नूतन"

Abstract Others

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संजय असवाल "नूतन"

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गरीब का आत्म सम्मान

गरीब का आत्म सम्मान

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रो रहा है गरीब, मर रहा है गरीब,

धूप में चलते चलते झुलस रहा है गरीब,

पांव में फफोलों और रिसते

खून के दर्द को सह रहा है गरीब, 


मगर तेज गरम लू के थपेड़ों में

फिर भी हंस के चल रहा है गरीब।

मायूस भूखे प्यासे बच्चों और

आंखों में दर्द लिए मां बाप, 


आजकल आम है सड़कों पर,

मगर कसूर क्या था उनका?

यही कि अपने मेहनत से, 

दो जून की सूखी रोटी पर खुश थे।

जो नसीब में था उनके, 


उस पर कोई गिला नहीं,

कोई अफसोस नहीं था उनको,

किसी के सामने हाथ नहीं

फैलाया था उन्होंने कभी,


झोपडी में रहकर महलों के

ख्वाब तो नहीं सजाए थे उन्होंने कभी।

उन्हें अपनी हर सीमा का ख्याल था,

और वो खुश थे अपनी सीमा में,

पर आज बेबस है,परेशान हैं,

खाली पेट धूप में नंगे पांव,


अपनी किस्मत का झोला उठाए बच्चों संग,

बिना किसी शोर शराबे के चुप चाप चले जा रहे हैं

अपने गांव की ओर।

ना किसी से उम्मीद थी, ना है, ना रहेगी उनको,

बस दुःख है कि ठगा गया है उनको,


तोड़ा गया उनकी छोटी छोटी उम्मीदों के घरोंदो को,

कभी सरकार के झूटे वादों ने,

कभी खुद उनकी किस्मत ने,

पर,ये सम्मान की लड़ाई है उनकी,

बेशक,वो भूखे प्यासे जरूर हैं,


पर,उनकी गरीबी का यूं

सरे राह मजाक ना बनाओ,

उन्हें ना कभी कुछ चाहिए था,

ना वो मांग रहे हैं, ना मांगेंगे कभी,

उन्हें बस जाने दो,जहां वो जाना चाहे,

ना रोको उन्हें,


वो फिर बसा लेंगे अपनी

एक अलग ही छोटी दुनिया,

बेशक वहां सुख सुविधाएं ना हो,

पर होगा वहां, एक गरीब का "आत्मसम्मान"।


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