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Rajeev Namdeo Rana lidhori

Abstract

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Rajeev Namdeo Rana lidhori

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ग़ज़ल

ग़ज़ल

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उसी को सबके अंदर देखता हूं।

मैं क़तरे में समुंदर देखता हूं।।


मंदिर-मस्ज़िद हो, वो एक ही तो हैं।

मैं उन्हें शामों सहर देखता हूं।।


हमें ये मुल्ला पंड़ित बांटते है।

आड़ में ही धर्म पर क़हर देखता हूं।।


यहां पे भी चैंनों सुकूं अब मिले ना।

गांवों को बनते शहर देखता हूं।।


जो पहले थीं वो अब शराफ़त नहीं है।

मैं काले मुंह का बंदर देखता हूं।।


"राना" ये ज़ुल्मों सितम देखकर।

दिल में ही उठती लहर देखता हूं।।



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