Ghazal No.16 लोहा लोहे को काटता है इस ख्याल में प
Ghazal No.16 लोहा लोहे को काटता है इस ख्याल में प
रुखसत हुआ साकी मयखाने से तो ग़म ना हुआ
टूटा जो पैमाना तो दिल में उठा दर्द फिर कम ना हुआ
जिसकी ज़ुल्फ़ें खुद साँवरी हों कहर-ए-तूफ़ाँ ने
बरहम उन्हें करने का फिर किसी में दम ना हुआ
लोहा लोहे को काटता है इस ख्याल में
पीता रहा मैं शराब बेहिसाब मगर तेरा नशा कम ना हुआ
ज़माना तू क्या रो रहा है मेरी जरा सी एक बात पर
हमसे पूछ तेरी किस किस बात पर हमको ग़म ना हुआ
निकले थे मेरे आँसू बनके सैलाब उसे सरापा भीगोने के लिए
पर वहाँ तो उसके दामान का एक क़तरा भी नम ना हुआ
दी लबों को सहरा की प्यास तो आँखों को अश्क़ों का समंदर मिला
दिया हुआ ज़िंदगी का सबकुछ बढ़ा कुछ भी कम ना हुआ
बस इतना सा ही था अफ़साना अपनी ज़िंदगी का
खुशियाँ मुझसे रूठीं रहीं और ग़मों पर हमें बरहम ना हुआ
मर्ज़-ए-शक-ओ-शुबा का नहीं कोई इलाज़ दुनिया में
ये वो ज़ख्म है ईज़ाद जिसके लिए कोई मरहम ना हुआ
जबसे बन गया है मेरा दिल है तेरे तसव्वुर की मिलकियत
यहाँ मेरे ख़्वाबों-ख्यालों का फलना फूलना कभी कम ना हुआ
मिट जाता है वजूद दरिया का समन्दर से मिलने के बाद
इसलिए 'प्रकाश' मैं मैं ही रहा मैं हम ना हुआ।