घूँघट
घूँघट
घूँघट में छुपा कर चेहरा, जाने कितने
गुनाह कर डाले
फिर भी लोगो ने घूँघट में शर्म हया के
बेहिसाब संस्कार भर डाले।
ना जाने कैसी ये सोच है जो आसमान
छू रही है।
पर्दे के नाम पर चरित्र प्रमाण दे रही है।
खामोश है वो, कमजोर नहीं है।
बस तुम खुश रहो, इसीलिए सह रही है।
आज़ादी के नाम पर झंडे लहरा रहे है।
और एक ओर हम औरत को पाँव की
जूती बता रहे हैं
बदल रही है सोच, ये भारत बदल रहा है
पर कई दरवाज़ों के पीछे आज भी एक
जी जल रहा हैं
उस ख़ुदा ने तो फ़र्क नहीं नवाजा इंसानों का
पर इंसान खुद अपने आप को ख़ुदा बता रहा है।