घमंड
घमंड
घमंड काहे का सनम जब,
साथ जाने को कुछ भी नही
पड़े यहीं सिंहासन सारे
जिन पर बैठा करते
कभी शंहशाह।
घमंड काहे का सनम जब,
साथ जाने को कुछ भी नहीं
खंड्हर बने महल
वीरां पड़ी हवेलियाँ
कोई नहीं अपना कहने को
झूठीं हैं सारी पहेलियाँ।
घमंड काहे का सनम जब,
साथ जाने को कुछ भी नहीं
खुद के अंदर छिपा है बैठा
जिसको आत्मा कहते हैं।
जन्मों-जन्मों से जिसको
समझ न पाये हम
क्या जानेंगे इस दुनिया को
जब खुद का अपना पता नहीं।
घमंड काहे का सनम जब,
साथ जाने को कुछ भी नहीं
प्रेम का नाटक बहुत है
घर में दफनाता कोई नहीं।
जब खुद के घर में
खुद के लिये
एक कोना तक नहीं फिर,
घमंड काहे का सनम जब
साथ जाने को कुछ भी नहीं।