ग़ज़ल
ग़ज़ल
दीवाना ये ज़माना रोज़ सुनता है सुनाता है,
जहाँ आँसू मेरे गिरते वहीं तूफान आता है।
खबर वो पढ़ के बैठा है हमारे दर्द की इतनी,
मेरे ही इश्तियारों को वो मुझ पर आज़माता है।
मुझे तक़दीर ये कैसी अता कर दी मेरे मालिक,
मेरे ही कत्ल का देखो मुझी पर नाम आता है।
तुझे मैं भूल बैठा हूं तेरी यादें न बाकी है ,
भुला कर याद रखने का ये दिल इल्ज़ाम पाता है!
कलाई काट कर बैठा मगर ये क्या सितम तेरा?
मेरी नाज़ुक रगों से भी तेरा ही खून आता है।
कलम मेरी नहीं रूठी, वही पैगाम लिखती है,
उसी की लाल एक स्याही जला ये दिल बनाता है।
सितम से जीत कर बैठा ये मेरा दिल सुनो प्यारे,
मगर जब देखता तुझ को ये फिर से हार जाता है।
तेरी चूड़ी का हर टुकड़ा कहीं संभाल कर रख लूँ,
जहाँ पर छोड़ा आता हूं वही दिल भाग जाता है।
कफन में बांध कर बैठा कई मरहूम ख्वाबों को ,
मगर एक चाँद का टुकड़ा उसे फिर खोल जाता है!
तलब मुझ में बहुत है पर ये बुझती ही नहीं कातिल,
अधर पर रखकर वो प्याला मुझी पर फेंक जाता है।
शरारत बोल कर उसने मेरे इस दिल को तोड़ा है,
हकीक़त जानता है ये मगर कब बोल पाता है?
ये दुनिया की रियासत पर मैं तेरा नाम लिखता हूं,
तुझे जब देखता है जाम खुद खय्याम लाता है!