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Gazala Tabassum

Abstract

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Gazala Tabassum

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ग़म की रात

ग़म की रात

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होती क्यों ग़म की रात कभी मुख़्तसर नहीं

अल्लाह क्या नसीब में मेरे सहर नहीं


पहचानने का चीजों को मुझमें हुनर नहीं

सागर को छान कर के भी पाया गुहर नहीं


ऐ ज़िन्दगी न इतना भी गुमराह और कर

जाना हमें किधर है बता और किधर नहीं


मेरे बग़ैर रहता है बेचैन तू अगर

तेरे बग़ैर जान मेरा भी गुज़र नहीं


आकर के मेरी मौत ने बतला दिया मुझे

मंज़िल से आगे होता है कोई सफ़र नहीं


हम हाल पूछते भी तुम्हारा तो किस तरह

मुद्दत से हमको अपनी ही कोई ख़बर नहीं


दिल के सुकून के लिए कहती हूँ शेर मैं

तमगे पे या ख़िताब पर मेरी नज़र नहीं।


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