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ritesh deo

Abstract

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ritesh deo

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एकाकीपन

एकाकीपन

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यह शहर मुझे आहिस्ता आहिस्ता

खत्म किए जा रहा है

इस भीड़ में से मेरा नामोनिशान

मिटता जा रहा है

धीरे धीरे.....

बिना पदचिन्ह छोड़े।


ये उम्मीदें ये आशाएं मेरी

मेरे ही क्षरण का कारण बनते जा रहे हैं

कभी ख़ुद पे इठलाता एक नवयुवन पेड़ जैसा

लगता था ढेरों फल देगा


असंख्य राहगीरों को अपनी शीतल छाया का आसरा देगा

पंछी जिसकी डालों पर बैठकर जीवन का राग गायेंगे

लेकिन समय चक्र चलाया

जो उसने सोचा कर न पाया


आंधी तूफानों ने उसको जर्जर जीणृ क्षीणृ कर डाला।

अब तो बसंत भी उसको भीषड़ तपन जैसा लगता है

सावन के मौसम में आंसुओं में डूब जाता है।


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