एक मोड़ ऐसा भी.
एक मोड़ ऐसा भी.
एक मोड़ ऐसा भी ..."
(मिलन और बिछड़ने पर आधारित कविता)
एक मोड़ ऐसा भी आया सफ़र में,
जहाँ तुम मिले, बिल्कुल अचानक —
ना कोई दस्तक, ना कोई आहट,
बस... निगाहों से दिल तक का फ़ासला मिट गया।
तुम्हारी मुस्कान में था कुछ ऐसा,
जैसे बरसों से रुकी बारिश खुलकर बरस गई।
हमने साथ चलने की क़सम नहीं खाई,
फिर भी क़दम खुद-ब-खुद एक रस्ते पर आ गए।
वो बातें... जो अधूरी सी थीं पहले,
तुमसे कहकर जैसे पूरी हो गईं।
वो खामोशियाँ... जो बोझ थीं दिल पर,
तुम्हारे साथ... जैसे सुकून बन गईं।
मगर फिर...
एक और मोड़ आया सफ़र में,
जहाँ तुम्हें जाना था, और मुझे रह जाना।
ना शिकवा था, ना शिकायत,
बस आंखों में एक पल के लिए ठहरी रही बारिश।
तुम गए...
मगर तुम्हारी खुशबू रह गई इस हवा में।
तुम्हारी हँसी, इस चुप्पी में कहीं गूंजती रही।
और मैं?
मैं वहीँ खड़ा रहा, उसी मोड़ पर,
जहाँ एक बार तुम मिले थे।
शायद अगली बार,
कोई नया मोड़ लाए फिर से तुम्हें,
या मुझे वो हिम्मत —
जो सफ़र को अकेले भी सुंदर बना दे।
