एक घर ऐसा भी !
एक घर ऐसा भी !
एक और भी था घर मेरा,
परियों का जिस में वास था,
अलग भी था और खास था।
खुली छतें, दरवाजे खुले,
और आंगन वसी,
खुशबु सी थी, जिन में बसी,
रंग था नूर था,
कुछ मौजिज़ा जरूर था।
फासले थे बहुत,
करीबियाँ भी थी मगर,
इतनी रौशनी नहीं थी,
न ये अजब-सा शोर था।
फिर भी सुबह थी नई,
और शाम में सुरूर था,
कुछ अलग-सा जरूर था।
एक और भी घर था मेरा,
जिस में रहता था मैं कभी,
जो भी थी, जैसी भी थी,
एक हस्ती थी मेरी।
शिकायतें थी कुछ,
और कुछ हसरतें,
शायद जो हैं मुझमें,
अभी भी कहीं।
अब ज़िन्दगी जैसी भी है,
शिकायतें तो कम ही हैं,
मगर अभी भी कभी-कभी,
घर में खुद को पाता हूँ अजनबी।।