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एे राहगीर

एे राहगीर

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एे राहगीर,
फिकर ना कर तपतपाती हुई धूप की
ना सोच राह में कुछ अनहोनी होने की
आसमान तो खुला है और राह भी सूनी
दो पग की दूरी पर मुस्करा रही है मंज़िल
एे राहगीर,
फिकर ना कर उस मंज़िल की
जो बदलती है राह के साथ साथ
ल के देख ले पहले उस राह में
बिना कोई हिचकिचाहट और संदेह के साथ
एे राहगीर,
फिकर ना कर कल की
जो पूरी तरह से वर्तमानहीन है
मौज मना ले और खुशियों से भर दे उन्‍हें


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