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Earth

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"पृथ्वी की पुकार"

मैं पृथ्वी हूँ पृथ्वी, सौरमण्डल का तीसरा ग्रह
लोग मुझे धरती कहते हैं, और चाँद मेरा उपग्रह

हमेशा सूर्य के चारों ओर घूमती हूँ, फिर भी स्थिर हूँ
अपने अक्ष पर झूमती हूँ, मौसम बदलने में माहिर हूँ

दिन-रात हर पहर, अपने काम के प्रति झुकाव है
मंगल-शुक्र पड़ोसी मेरे, न उनसे कोई टकराव है

वसुधा इला अंबरा धरा, मही भूमि धरणी अवनी
मेरे ही सब नाम हैं ये, मैं ही वसुंधरा मैं ही जननी

कुदरत के अनमोल ख़ज़ाने, दफ़्न हैं मेरे सीने में
देता आया इंसान तो बस, हाँ ज़ख्म मेरे सीने पे

नदियाँ पहाड़ झरने जंगल, वादियाँ समंदर फल और फूल
क्या-क्या नहीं मैंने दिया तुम्हें, क्या वो सब गए तुम भूल

मुझ को अर्थ कहने वाले, तूने हमेशा मेरे साथ अनर्थ ही किया
कोंख को मेरी छलनी कर के, प्राकृतिक आपदा का बर्थ किया

पार होती है जब भी हद, गुस्सा मुझे तब आता है
यूँही तो नहीं बेवज़ह कभी, ज़लज़ला कोई आता है

मुझ से ही बने हो तुम, और मुझ में ही आकर तुम को मिलना है
फिर भी नहीं समझते हो कि, हमें इक दूजे का ख्याल रखना है

माना कि इस तमाम कायनात में, और कोई नहीं है मेरे जैसा
पर जब मिटना है एक रोज तो, फिर खुद पर अभिमान कैसा

चाहे जितने भी तुम दिन मना लो, पर अब तो अपनी गलती मानो
सुनकर ये अपने प्लेनेट की पुकार, अर्थ को फिर से स्वर्ग बना दो।।

















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