मन ही शत्रु मन ही मित्र
मन ही शत्रु मन ही मित्र
चरित्र नहीं कोई मेरा ना कोई चित्र है
मन ही है शत्रु मेरा मन ही मेरा मित्र है
शब्दों के दरमियां रहता हूँ लोग कहते है कवि
पल भर में पहुंच जाऊँ वहाँ जहाँ ना पहुंचे रवि
कल्पना के भव सागर में नित नए गोते लगाता हूँ
कविताओं के मोती संवेदनाओं के शंख में पाता हूँ
सब कुछ लिखकर भी सब कह नहीं पाता हूँ
मैं खुद से खुद की दूरी यह सह नहीं पाता हूँ
राग द्वेष प्रेम त्याग करूणा अनगिनत रूप
धर लेता हूँ
मैं मन ही मन स्वयं को उस भाव के अनुरूप
भर लेता हूँ
चरित्र नहीं कोई मेरा ना कोई चित्र है
मुझी में है शत्रु मेरा मुझी में मेरा मित्र है