Mayank Kumar 'Singh'

Abstract

5.0  

Mayank Kumar 'Singh'

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ए चाँद

ए चाँद

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ए चाँद ऐसे ही छिप

खूब लुका छुपी खेल

चांदनी रात को

अमावस्या बनाकर

खूब काली हो जा

खूब मैली हो जा

अपने दागों को सहेज कर

बदसूरत दिख कर

प्रेम में अमावस्या का भोग लगाकर

सरकारों को चिढ़ाना

जो है उनको भी

जो बीत गए उनको भी

कर्मकांडों का हार पहनकर

प्रेमी - प्रेयसी को लाठियों से पिटवाना

किसी सरकार के ख़ातिर !

कभी ऊंच-नीच

तो कभी धर्म के नाम पर

खूब सुर्खियां बटोरना

तब शायद जो राजनेता चाहते हैं

वही होगा -

इससे उनको जनता का मत बराबर मिलेंगे !

सरकार बनेगी

कभी देश में कोई इमरजेंसी आएगी

जो जनता के आवाज को गौण करेगी

तो कहीं अनेकों नई सरकारें आएंगी

जो फिर से नई योजना लाएंगे . .

किसी का नाम राशन कार्ड से कटेगा

तो कोई भारतीय होने से ही वंचित होगा

तो कोई घूस देकर भारतीय फिर होगा

तो कोई फिर भूखा पेट ही मरेगा

फिर से चिंता होगी गरीबों का

और ऐसी चिंता होगी की

आधे चिता पर ही लेटे होंगे !

पर घबराने की कोई बात नहीं

अगर पुराने सरकार की वापसी हुई

तो पुरानी योजनाएं पेट के आग

कुछ हद तक बुझायेंगे !

पर नई सरकार आई तो

पुरानी योजनाओं के साथ

कितने लोग यादों का हिस्सा बन जाएंगे !


पर चाँद आज मैं समझ गया

तुम्हारी सुंदरता में

विरासत के तौर पर

यह दाग क्यों नसीब हुई

क्योंकि हर युग में

कुरीतियों को होते तुमनें देखा हैं

जब किसी युग में कोई

वंचित , प्रेमी , शोषित रोया

तब - तब तुमने विरासत के तौर पर

एक दाग अपने ऊपर भी ले लिया !


ए चाँद तू ऐसे ही लुका छुपी खेलना

जब तक की ये समाज

धर्म और मजहब के शीशे से दूर न हों जाए

तुम्हारी दाग को खुद का धब्बा ना समझ जाए


तब तक


ए चाँद तुम ऐसे ही लुका छुपी खेलना . . ! !


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