दया निधि
दया निधि
पूछता समाज खुद से कहां छुपी दया बैठी है
किसने किया काम ऐसा जो वो सबसे रूठी बैठी है
मैं हो हूं जो अनंत काल से आदि काल की साक्षी बनी बैठी हूं
देवतों की दुनिया की मैं ही प्रथम रचना हूं
सतयुग, त्रेतायुग या त्रेतायुग में पुष्प si खिली हूं
इस युग में आकर लगता शायद खुद से पहली बार मिली हूं
शिव सती का प्रेम देखा, अमृत मंथन की गाथा भी
शबरी केवट को भक्ति देखी
सुदामा की मित्रता भी
फिर क्यों लगती हूं आज भी औरों को अनजान सी
जब क्षमा किया राम ने दशानन को मैं भी वहां उपस्थित थी
धिक्कार है जो द्यूत सभा के खेल में अनुपस्थित थी
यों तो मैं कण कण में क्षण क्षण मिल जाती हूं
पर उतनी आसानी से ही भुला दी जाती हूं
पर खोज के देखो तुम में आसानी से मिल जाती
और अपनी एक छवि भी वर्षों वर्षों याद दिलाती हूं
क्षमा मेरी सहेली है
और करुणा मेरा प्रतिबिंब
मुस्कान मेरे पदों चिन्हों में चलती हुए आती है
और संतोषी भी मुझे ढूंढते ढूंढते दिल में बसने आ जाती है
महलों में कम मेरा तो कुटियों में बसेरा है
नवदुर्गा और अस्थलक्ष्मी सा मेरा भी रूप अनोखा है
अनजान को दी मुस्कान मैं बस्ती हूं
ट्रैफिक सिग्नल पे उन बूढ़ी अम्मा से एक गुलाब या कलम लेने में दिखती हूं
ठंड में अपने घर में सहायता करने वालों से जब गरम चाय की प्याली पे
दुनिया का नया पहलू देखते हो वहां भी मैं हूं
और चिलचिलाती धूप में शीतल जल मैं हूं
बारिश में अनजान संग छतरी बाट एक नई दास्तान प्रारंभ करने में हूं
हर शुक्रिया और आग्रह में मैं हूं
खड़ी हूं कुछ ही दूर बस देखने का नजरिया चाहिए
दुनिया में दया की कमी नहीं बस तुम्हें सबको अपना मानना चाहिए
भक्ति भी मुझसे से
प्रेम का भी आधार हूं
सम्मान भी मुझसे है
देवों के आशीर्वाद का विस्तार हूं
एक कदम तुम बढ़ाओ
फासले मैं मिटाऊंगी
जब भी तुम प्रयास करोगे
लौट के मैं(दया) तुम्हें मिल जाऊंगी।