दुपहरी उदास हो जाती है
दुपहरी उदास हो जाती है
दुपहरी आंगन में आती है
मां के आंचल से न खेल पाती है
मां को आंगन में न देख पाती है
दुपहरी उदास हो जाती है
हर दोपहर मां आंगन में लगी रहती थी
चीजों को धूप दिखा समेटा करती थी
सूप से फटक कर
अनाज साफ करती
मिर्च मसालों में
धूप लगाया करती
खसखस की टट्टी गीला करती
हमें गुड धानी खिलाया करती
फुरसत में बचपन के किस्से सुनाती ,
हमें खूब हंसाया करती
धूप भरी दोपहरी में
कुएं से पानी भर कर लाती
मटके का पानी ठंडा रखने
तरह तरह के जतन करती
मां थी तो
गर्मियों की दोपहर आंगन में
हलचल लगी रहती थी
नीम की छांव में बैठकर
पड़ोसिनें एक दूजे संग
अचार पापड़ मंगोड़ी
बनाया करती थी
दोपहरी भी सब देखते सुनते कब
सांझ में तबदील हो जाती
सांझ पड़े आंगन बुहारते मां
लोकगीत गुनगुनाया करती
सूरज भी अब प्यासा लौट जाता है,
मां के लोटे को देख उदास हो जाता है।
गाय भी कातर स्वर में बहुत रंभाई
उसे मां के हाथ की रोटी याद आई
चांद अब आंगन में
ज्यादा ठहर नहीं पाता,
मां की ओढ़नी के शीशों में
अपना, चेहरा देख नहीं पाता।
"बच्चों की मां सुनती हो "पिताजी का
ओजस्वी स्वर सुनाई नहीं देता
पिताजी के चेहरे पर अब
दोपहर सा तेज दिखाई नहीं देता।।