।। दशहरा ।।
।। दशहरा ।।


आज फिर है दशहरा,
सत्य की असत्य पर विजय का प्रतीक,
जो सिखाता की शत्रु हो कितना बड़ा,
तो बस रहो निडर, रहो निर्भीक,
कितनी सदियों और पीढ़ियों,
से ये कथा हम सुनते आए,
कि दिन ये ही था जिस दिन,
मार दशानन को राम थे विजय पाये।।
बात चूंकि कथा में थी सुनी,
तो वो बस कथा तक ही रह गयी,
हर साल बस फूंक कर पुतला रावण का,
ये मान लिया कि बुराई ,
सत्य के अविरल प्रवाह में बस बह गई ।।
सत्य पूछो तो अब सत्य और असत्य,
इन को विभक्त करना है बड़ी दुस्वारी,
आज तो जो जीत गया वही सत्य है,
धर्म की कितनी बड़ी है ये लाचारी ।।
अब सत्य , सत्य नहीं ,
तेरा औऱ मेरा सत्य है होता,
सत्य अब समय औऱ परिस्तिथि पर निर्भर,
अब कुछ अटल सत्य नहीं होता।।
तो जब अब असत्य ओढ़ कर लिबास सत्य का,
बस निडर निर्भीक सा घूम रहा,
राम असहाय से लगते,
हर ओर दशानन झूम रहा,<
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तब ये दहन पुतलों का जरा बेमानी है,
कौन से सत्य की ,
किस असत्य पे जीत मनानी है,
उठो जागो और तोड़ के निकलो,
ये जो मानस पटल पे है पड़ा पहरा,
चुनौतियां राम कि सब कर धारण,
करो अन्वेषित उस सत्य का चेहरा,
वो सत्य जो सास्वत है, है हर स्वार्थ से परे,
वो सत्य जो निर्भीक है, असत्य हर उस से डरे,
विजयादशमी नहीं त्योहार सिर्फ मनाने का,
ये तो है पर्व खुद पे विजय पाने का,
एक राम और एक दशानन ,
हम सब में अंगीकृत हो कर आया,
तो अपने अंदर के रावण से लड़ कर,
बस खुद में ही राम जगाना है,
पर्व न रहे बस रीति तक सीमित,
इस कथा को सत्य बनाना है।।
जब हर जन में हौंगे राम जगे,
विद्वेष का रावण सबका हुआ मरा,
उस दिन असत्य सच में हारेगा,
सत्य निर्भीक स्वर्ण सा निखर खरा,
उस दिन की अनुभूति और आशा में,
मन व्याकुल सा है फिरे जरा,
आज फिर है दशहरा ।।