द्रौपदी
द्रौपदी
हस्तिनापुर की भरी सभा में,
कुलवधु द्रौपदी पुकार रही।
आर्तभाव संग करुण स्वर में,
समरवीरों से गुहार रही।
"हे महारथी, हे आर्यवीर !
लाज मेरी यहाँ उतर रही।
वयोवृद्ध विद्वान विराजमान,
नारी की गरिमा बिखर रही।
यज्ञसैनी मैं, पांचाली मैं,
मत मेरा अपमान करो।
कुल की मर्यादा हूँ मैं,
सरेआम न नीलाम करो।
मस्तक झुकाये बैठे यहाँ सब,
धिक्कार ! तुम कुछ न कर पाओगे।
हे सखे, सुन हे कृष्ण मेरे !
अब तुम ही रक्षा को आओगे।
आ जाओ हे मधुसूदन !
देखो यह पाप ! यह चीर हरण !
कोई नहीं अब तुम बिन मेरा,
कर जोड़े , माँगू मैं शरण। "
हरि नाम की टेर सुन कर,
त्वरित गोविंद पधार गए।
सैरंध्री का सहारा बन
चीर अनंत बढ़ा दिए।
द्वापर में श्री द्वारिकाधीश,
द्रुपदसुता को बचाने आए थे।
फिर क्यों ना आज हर निर्भया को,
कोई कृष्ण बचाने आते हैं ?
पुकारा तो उसने भी होगा,
नयनों में नीर उसके भी होगा।
पीर में तड़पी वह भी होगी,
फिर क्यों अनसुनी उसकी चीख कर दी ?
सुनो बेटियों........
स्वयं दुर्गा का रूपधारण कर,
दु:शासनों का तुम संहार करो।
तुम्हें छूने को जो हाथ उठे,
चंडी बन उस पर वार करो।
हैवानियत की बलिवेदी पर,
अब न कोई बेटी भेंट चढ़े।
जीने का उसको भी हक है,
प्रगति पथ पर नित अग्र बढ़े।