दफ्तरका गुलाम
दफ्तरका गुलाम
मुलाजिममुलाजिम सरकार का
बना गुलाम दफ्तर का
हर सुबह हाँफता हुआ
दौडता गाडी पकडने
न पहुँचे साढे नौ तो
मिलता लेट मस्टर
सुबहसे शामतक अक्सर
बैठा रहता है कुर्सीमे धंसकर
बिताता है दिन कलम घिसकर
मोटी-मोटी फाईलोमें अक्सर
खोया रहता है दिनभर
फिरभी बोझ कामका
न होता कभी हल्का
कछुएकी चाल सी
होती है तरक्की बढती है तनखा
वह भी बस नामकी बढने को बढती है
चढती महंगाई है ,
हाय राम दुहाई है , दुहाई
