दोनों घरों की गरिमा तुम
दोनों घरों की गरिमा तुम
देखता है जब पिता बेटी को
लाल चुनरी को ओढे हुए
भर आती हैं आँखें उनकी
नन्हें कदमों के बढ़ते हुए
एक ही पल में उनकी बेटी
कितनी बड़ी सी लगती है
अपने आपको संभालती है
दूसरों को भी संभालती है।
जब आता है वक़्त फेरों का
दिल पिघल सा उठता है
हर एक फेरे के पूरा होते
बेटी पराई सी लगती है।
अंत में आता है नाजुक पल
जब कन्यादान को लिया जाता है
अपनी बेटी का हाथ थाम कर
लड़के के हाथ दिया जब जाता है
एक तरफ तो खुशियाँ होती हैं
एक तरफ उदासी भी
करना पड़ता है उसको विदा जब
रो पड़ती हैं आँखें भी।
देकर दुआओं को झोली में
बैठाते हैं डोली में जब
कहते हैं फिर अंत में उसको
अब दोनों घरों की गरिमा तुम।।