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Neha Saxena

Others

4  

Neha Saxena

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एक बेटी के मन की व्यथा

एक बेटी के मन की व्यथा

1 min
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घटते जा रहे हैं दिन ये मानो

रफ़्तार लिए ये समय की


करीब आ रहे हैं वो दिन अब प्रतिपल

बिछड़ अब सबसे जाऊँगी 


जिनको देखकर सुबह होती है

उस सुबह से दूर हो जाऊँगी


कैसा होगा वो दिन भी मेरा

मानो टूटकर रह जाऊँगी


न चाह कर भी उस माँ का आँचल

अब छोड़ चली मैं जाऊँगी


रहती हूँ जिस पिता की छाया में

छाया भी छोड़ मैं जाऊँगी


मानो नन्हा सा मैं पौधा

मुरझा कर रह मैं जाऊंगी


जहां मिला जन्म जो मुझको

आँगन वो छोड़ मैं जाऊँगी


कैसी ये दुनिया की रीत है

इसको भी निभा मैं जाऊँगी


न चाहते हुए भी अपनों से अब मैं

दूर चली अब जाऊँगी


रोते हुए न देख सकती हूँ किसी को

रोता बिलखता छोड़ मैं जाऊँगी


टूट कर फिर टुकड़ों को फिर से

जोड़ने मैं लग फिर जाऊँगी।।



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