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Sudhir Srivastava

Abstract

4  

Sudhir Srivastava

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दोहा मुक्तक

दोहा मुक्तक

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4

अवसर
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अवसर आया देखिए, लीला प्रभु की जान।
जिसका जैसा  भाव  है, वैसा उसका मान।
आज अवध में सज रहा, भव्य राम दरबार।
भक्त सभी हैं कर रहे, प्रभो राम का ध्यान।।

गंगा माँ को आज हम, झुका रहे हैं शीश।
बदले में हम चाहते, बस  उनसे आशीष।
मैली नित करते हुए, शोर मचाये नित्य।
अवसर केवल खोजते, और निकालें खीस।।
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रिश्ते
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रिश्ते  अब  सबको  लगें, जैसे  कोई  रोग।
सभी स्वार्थ में रंग रहे, चाहें सुख का भोग।
कैसी   लीला  है   प्रभो,  रंग  भए  बदरंग।
या हम केवल मान लें, महज एक संयोग।।

रिश्ते  देने  हैं  लगे, अब रिश्तों को  घाव।
रिश्तों में अब दीखता, ना मर्यादित भाव।
हर  रिश्ते  में  बन  रही,   संदेही  दीवार।
खोता जाता देखिए, प्रेम प्यार सद्भाव ।।
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कबीर
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वाणी  कटु  जितनी  रही,   उतने  उत्तम  भाव।
कुछ  ने  कहा  प्रसाद  है, कुछ  ने  गहरा घाव।
समय-समय की बात है, या फिर प्रभु का खेल।
आज  सभी  उनको  पढ़ें, वाणी  सुनते  चाव।।

हिंदू- मुस्लिम में कभी,  नहीं  कराते  भेद।
दिखलाते ये सभी को, मानव मन का छेद।
मंदिर मस्जिद अर्थ का, समझाया था पाठ।
कहते  करते  जो  रहे, नहीं  जताया  खेद।।        
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 अवसाद
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सरल सहज हो भावना, मन में नहिं संताप।
वरना  ये  अवसाद  ही, बन  जायेगा  पाप।
संतोषी  जीवन  जिएँ, मस्त  मगन  भरपूर।
धन्यवाद प्रभु का करें, क्या कर लेगा शाप।।
         
हर प्राणी अवसाद में, जीने को मजबूर।
समय चक्र में उलझकर, खुद से होता दूर।
माया ये अवसाद की, समझ रहे हम-आप।
चाहे अनचाहे फँसे, दंभ में निज हैं चूर।।

समय  बड़ा  बलवान  है, हर  प्राणी  बेचैन।
भाग दौड़ में सब लगे,  नहीं किसी को चैन।
और अधिक के लोभ में, करते भागम-भाग।
हर कोई इसमें फंसा, दिन हो या  फिर  रैन।
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सुधीर श्रीवास्तव (यमराज मित्र)


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