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Sudhir Srivastava

Abstract

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Sudhir Srivastava

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दोहा मुक्तक

दोहा मुक्तक

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दोहा मुक्तक

जितना देते हम  रहे, उनको  ज्यादा  मान।
उतना ही वे फैलकर,  दिखा  रहे  हैं  शान।
दिख लाया जब आइना, लगे चुराने आँख।
जाने  कैसे  हो  गया,  उनको इतना ज्ञान।।

मानव कितना गिर गया, बन जाता हैवान।
कैसे  कहते  लोग  हैं,  वो  है  बस नादान।
रचते नित षड्यंत्र वो, बनते  हैं  खरगोश।
भोली सूरत ओट में, छिपे  हुए  शैतान।।

शादी जोड़ा वो पहन, चल  दी  शातिर  चाल।
पति की खातिर वो बनी, जीवन का जंजाल।
मेंहदी  हाथों की अभी, हुई  नहीं  थी  साफ।
दो परिवारों के लिए, वो  बन  गई  बवाल।।

लेखन दोहा हम करें, समझें नहीं विधान।
इसीलिए तो हो रहा, मुर्झाया  सा  ज्ञान।
दुविधा में ये जान है, कल गण में हो दोष।
सरल सहज ये है विधा, मैं ही मूर्ख समान।।

चर्चा में है इन दिनों, सोनम राजा कांड।
राज बीच में है घुसा, जैसे  चावल माँड़।
हनीमून  की आड़ में, कैसा  था  ये  खेल।
इसके पीछे कौन था, सबसे शातिर साँड़।।
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विमान
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यात्री  गण  के  साथ  में,  थे  यमराज  सवार।
एक  अदद  विश्वास  से,  नहीं  सके  पा  पार।
आखिर उनके खेल का, समझ न आया राज।
लेने  इतने  प्राण  का,       ये  कैसा  आधार।।

दुखी  बहुत  तूने  किया,     मेरे  प्रिय  यमराज।
आखिर ऐसा क्यों किया, बतला मुझको आज।
क्या यह तेरा  शौक था, या  फिर  आया  ताव।
आखिर ऐसा क्यों हुआ,  खोलो अब ये  राज।।

बैठे थे सब खुशी से, फिर उड़ चला विमान।
अंतिम  होगा ये सफर, इसका नहीं  गुमान।
इंतजार   परिवार   का,    होगा  ऐसे  पूर्ण।
जीवन के इस अंत का,  ये कैसा उनवान।।
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बरखा 
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बरखा  रानी  आ  गई,    दे  दी  दस्तक  द्वार।
प्रियवर  चिंता  छोड़िए,      भीगेगा  घर-बार।
शीश झुकाए प्रेम से,  भावुक  हुआ  किसान।
जैसे चलकर आ गई, खुशियां स्वयं अपार।।

सुधीर श्रीवास्तव (यमराज मित्र)


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