'दो पुरुष का एक होना'
'दो पुरुष का एक होना'
सृष्टि स्वीकारे नहीं क्यों,
दो 'पुरुष' का एक होना ?
प्रेम पर किसका नियंत्रण
यह जिसे दे दें निमंत्रण
मात्र भर सकता वही तो,
भावना का रिक्त कोना।
स्नेह संयोजन हृदय का
अंत्य है वर्तुल वलय का
'लिंग' पर निर्भर कहाँ है,
बन्धु ! इसका बीज बोना ?
क्या विधाता ने न देखा
जब रचा था रूपरेखा
ज्ञात तो होगा उसे भी,
नव्य यह बंधन सलोना।
किंतु वह ऐसा करे क्यों
भाव जब उसने भरे यों
विश्व भी इस पर विचार
रुद्ध कर दे 'रूढ़ि' ढोना।
सृष्टि स्वीकारे नहीं क्यों,
दो 'पुरुष' का एक होना ?
