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अमित प्रेमशंकर

Abstract

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अमित प्रेमशंकर

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दो फुट की चटाई

दो फुट की चटाई

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नई पलंग पर मैं सोऊंगा

लड़ता था कभी यह कह के

नहीं मैं खाना खाऊंगा

मैं रूठ जाता था यह कह के


कहां लड़कपन छूट गई

जाने कब कैसे बड़े हुए

बीत चुके हैं कई बरस

हां तकियों से अब लड़े हुए।


क्या मम्मी, क्या पता

तुम्हें मैं कब कब एका होता हूँ।

दो फुट की चटाई में,

मैं कैसे सिमटकर सोता हूँ।।


नहीं मैं कपड़े धोऊंगा

ना खाना कभी बनाऊंगा

आज तो ठंडी बहुत है पापा

बारह बजे नहाऊंगा


कहते थे नालायक मुझे तो

मन ही मन में रोता था

नहीं रहे अब वो दिन जब मैं

आठ बजे तक सोता था।


देख ले आ के बाबुजी

अब खुद ही कपड़े धोता हूँ।

दो फुट की चटाई में

मैं कैसे सिमटकर सोता हूँ।।


आठ-दस का कमरा है

कमरे में ही एक मोरी है

चार-छः का एक चादर

सुती की बिल्कुल कोरी है


दिक्कत ना हो दूसरे को

हां ये भी ध्यान ज़रूरी है

पैर नहीं फ़ैला सकता

ये भी कैसी मजबूरी है।


कहते थे ना पापा तुम,

मैं पैर चढ़ा कर सोता हूँ।

अब दो फुट की चटाई में

मैं कैसे सिमटकर सोता हूँ


कर दिया बेगाना मुझको

घर की जिम्मेदारी ने

जो देखा ना, दिखलाया

इस पेट की दुनियादारी ने

मेरी मेहनताना से बस


इतनी सी एक आशा है

हंसी ख़ुशी परिवार रहे

हां यही मेरी अभिलाषा है


इसी आस से घर का बोझा

अपने सर पर ढोता हूँ।

दो फुट की चटाई में

मैं कैसे सिमटकर सोता हूं।।


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