धरती की व्यथा
धरती की व्यथा
एक मां की तरह
उसे भी शक्ति दी ईश्वर ने
धारण करने की
वह बीज को गर्भ में धारण कर सींचती
और काल के साथ कदमताल करते हुए
बीज फलता फूलता उसके साए में
एक दिन बीज पाता अपना जवान रूप
पर उसकी जड़ें अभी भी जुड़ी रहती
उसकी जीवनदायिनी धरती से
कभी कोई किसान फसलों के बीज
धरती में रोपता
तो कभी कोई उस पर हल चलाकर,
मिट्टी को जोतकर तैयार करता
धरती को धारण करने
नया बीज उसके गर्भ में
समय बीतता मौसम बीतते
और फिर वह बीज विकास कर
लहराता अपने यौवन पर
धरती भी कभी
पीपल बरगद की मजबूत जड़ों पर इतराती
तो कभी सरसों के पीले फूलों की छटा
चहुं ओर बिखेर फूली न समाती
किसान भी दिन रैन एक कर
अपने श्रम से उसे लहराता
और घरवालों को भी भरपेट
बढ़िया भोजन खिलाता
फिर अचानक एक दिन
किसान के मन में लालच आया
उसने धरती को समझा अपनी दासी
और अब बीज धरती में रोपकर
संतोष नहीं हुआ उसे
उसने सोचा
क्यों धरती अपने गर्भ में धारण करेगी इसे
अब उसने ज़बरदस्ती करने के इरादे से
रसायनों की परत धरती को उढ़ाई
अब खुश हुआ वो
क्योंकि अब प्रकृति के नियमों की
उसने धज्जियाँ थी उड़ाई
पर शायद अब धरती पर उपजे
सब्जियों फल फूलों पर धरती का
नहीं प्यार था
क्योंकि अब किसान का उद्देश्य
पेट नहीं व्यापार था
वह भूल गया यह बात
की धरती माता है
जो भी उसको चाहिए है
वह इस धरा से ही तो पाता है
धरती भी बहाती अश्क अब
अपनी बदहाली पर
क्योंकि अब बीज से ज्यादा
नीवें रोपी जाने लगी उसके गर्भ में
और पत्थरों से वार किया जाने लगा
उसकी छाती पर
धीरे-धीरे होती गई धरती बंजर
अब नहीं धारण करती वह गर्भ
अपनी मर्जी से
ना अब खुशी-खुशी सींचती है वह
फल फूल सब्जियों को
क्योंकि वह भी तंग आ चुकी है
मानव की खुदगर्जी से
बस धरती अब एक विश्वास
आंखों में समाये बैठी है
फिर आएंगे वे स्वर्णिम दिन
जब वह मुक्त होगी रसायनों से
यह आस लगाये बैठी है
एक बार फिर धारण करेंगी
वह बीज को अपने गर्भ में
और सींचेगी पुनः उसे
अपने प्यार और विश्वास के साथ!!