धर्म और कर्म
धर्म और कर्म
देखा जाए धर्म एक आस्था है जो प्रत्येक मानव के अन्दर होती है,
किसी में कम और किसी में ज्यादा आंकी जाती है,
यहाँ तक धर्म की बात की जाए तो धर्म जीवन जीने का एक तरीका है
और कर्म जो हम रोज करते हैं,
आम बातचीत में कहें तो धर्म ही कर्म को सही गलत का पाठ पढ़ाता है,
यह सत्य भी है यहाँ धर्म नहीं वहाँ अन्धकार ही रहता है,
वास्तव में धर्म नाम स्वभाव का है, स्वभाव यानि अपने ही भाव, अपना ही स्वरूप,
देखा जाए धर्म पालन करने के लिए भी कर्म की जरूरत पड़ती है
और यह सत्य भी है निस्वार्थ भाव से किया गया कर्म, धर्म के विरुद्ध नहीं हो सकता,
इसलिए धर्म और कर्म एक ही सिक्के के दो पहलू हैं तथा इसमें कोई छोटा या बड़ा नहीं है,
कहने का भाव कर्म का ही एक भाग धर्म है और एक अधर्म है,
असल में धर्म कर्म का पर्यायवाची है अलग नहीं है,
जैसे शास्त्रों की मानें तो लड़ना क्षत्रिय का धर्म भी है और यही उसका कर्म भी
कहने का भाव कर्म से ही धर्म के मार्ग पर चला जा सकता है
क्योंकि दुनिया कर्म के सिद्धांत पर चलती है और कर्म ही हमारा वर्तमान,
भविष्य बनाता है, धर्म केवल अच्छे या बुरे कर्मों का ज्ञान देता है
इसलिए संसार को चलाने के लिए कर्म ही प्रधान है,
देखा जाए धर्म इत्यादि के संबंधों का मुख्य कार्य कर्तव्य से है,
जैसे पत्नी धर्म, का मतलब पत्नी का पति के प्रति क्या कर्तव्य है इसी प्रकार पुत्र धर्म, राज धर्म
इत्यादि को समझ लेना चाहिए इसलिए धर्म को कर्तव्य का पालन समझना चाहिए।
अन्त में यही कहूँगा धर्म ही कर्म है, धर्म ही हमें कर्म करने के लिए प्रेरित करता है।