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धन्यवाद कह दूँ तुम्हें मैं

धन्यवाद कह दूँ तुम्हें मैं

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जोर भी है मेरे पाँव में,

कहाँ जान पाया लाश की नक़ल उतारने में,

और जीने की चाह करते-करते,

भूल गया, कि मैं जीवित हूँ।


जाने किसकी नसीहत थी,

या ज़द्दोज़हद में बहने की होङ,

थी शायद दूसरों की नज़र से,

खुद को पढ़ने की भूल।


लाश हूँ, लेकिन खून गर्म है मेरा,

कमबख्त इतना गर्म भी नहीं कि उबाल आ जाए,

और फूट पड़े नसों से।


जो जान पाऊं,

उत्तकों में बसी काबिलियत को अपनी

तो बनाने वाले,

धन्यवाद कह दूँ तुम्हें मैं।।


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