दहेज लोभी
दहेज लोभी
आभूषणों से सुसज्जित, उस कन्या का श्रृंगार किया,
पिता ने कन्या दान कर, जीवन को नव आकार दिया।
आँखों में नमीं भरें, वह ससुराल को चल पड़ी,
माता पिता से बिछड़ने की, कैसी थी यह दुखद घड़ी।
डोली थी सजी हुई, सभी वहाँ तैयार खड़े,
किन्तु वह कुछ क्षण, उसके लिए थे कठिन बड़े।
पुत्री का विलाप देख, पिता के अश्रु भी छलक आए,
अल्प साहस बटोर, डोली में उसे बैठा पाए।
इस नव्य विवाह के लिए, उसमें एक उमंग थी,
मगर सत्य से अंजान वह, उसका जीवन एक कटी पतंग थी।
पति के हृदय में, दहेज की कमी थी खल रहीं।
उसके जीवन की यह, अवांछित दुविधा थी पल रही।
वहाँ प्रेम से वह वंचित, उस पर अत्याचार हुआ,
यह दहेज कैसी प्रथा, जैसे कोई व्यापार हुआ।
कन्या के दान से विशाल, सृष्टि में कोई ना दान हुआ,
गृह में इस लक्ष्मी का आना, ईश्वर का वरदान हुआ।
रोज़-रोज़ का अत्याचार, वह सहन ना कर पाईं,
उचित कर्मो का ऐसा फल, स्वीकार वह ना कर पाईं।
अपनी दुविधा किसे सुनाए, मृत्यु को गले लगा लिया,
ससुराल वालों को दया ना आईं, उसके जीवन का
दीपक बुझा दिया।
मायके जब खबर यह पहुंची, माता-पिता ना सह पाए,
अपनी पुत्री का विवाह करके, वह बहुत ही पछताए।
पुत्री के अंतिम दर्शन को, उनके पाँव ना रुक पाए,
उस मासूम को चिता पर देख, अश्रु उनके ना थम पाए।
कैसा यह दहेज का लोभ, जो मनुष्य को दानव बना दे,
मनुष्य के हृदय से यह, दया की भावना मिटा दे।
नेत्रों पर पर्दा डाल, अंधकार यह कर देता है,
इन्सान की बुद्धि को यह, अवांछित चिंतन से भर देता है।