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aazam nayyar

Abstract

3  

aazam nayyar

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दग़ा

दग़ा

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रोज़ करते उससे बावफ़ा रह गये

और करते वफ़ा में दग़ा रह गये


प्यार की इंतिहा इतनी थी मेरे के 

और उसके सहते हम जफ़ा रह गये


धोखे खाये दग़ा के राहों से ऐसे 

मंजिल का ढूँढ़ते रास्ता रह गये


आकर मेरे चला वो गया घर सनम 

गुफ़्तगू से उसकी अनसुना रह गये


नफ़रतों की यहां तो बहुत धूल है 

प्यार के कब मौसम खुशनुमा रह गये 


हो गये गैर आज़म सभी अब यहां 

अब नहीं जीस्त में आशना रह गये.


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