STORYMIRROR

Surendra kumar singh

Abstract

3  

Surendra kumar singh

Abstract

ढलती हुई रात

ढलती हुई रात

1 min
247

इस सुनसान ढलती हुयी रात में

सूरज के स्वप्निल सिलसिले हैं

हमारे गीत

हाथ मिलाओ दोस्तों

गुनगुनाओ

मंगल भवन अमङ्गल हारी।


वसुधैव कुटुम्बकम का तुम्हारा

ये आधुनिक संस्करण

विश्व ब्यवस्था विश्व ब्यवस्था

जाने कैसी ब्यवस्था

चारो तरफ अफरा तफरी

घर जैसा एहसास कहां है।


इस सुनसान ढलती हुई रात में

सूरज के स्वप्निल सिलसिले हैं

हमारे गीत

न कोई सरहद

न कोई आगाज

न कोई अभियान

न कोई मकसद।


सिवाय प्यार के तुम्हारे

पूछना हो पूछ लो

बुद्ध के बुद्धत्व से

द्रौपदी के नारीत्व से

मनुष्य की बनायी गयी सीमाओं को

हमने बार बार तोड़ा है।


ये पूरा आकाश ही नहीं

पूरी धरती भी हमारी

तुम्हारे लिये।


Rate this content
Log in

Similar hindi poem from Abstract