दौर
दौर
बात उन दिनों की है
जब पीपल पूजा जाता था
माँ बलाए लिया करती थी
पिता के कंधे पर बच्चा मैले जाता था
गुरु का मान उन दिनों ईश्वर के समक्ष था
शिक्षा की ख़ातिर बच्चा विद्यालय जाता था
मैदानों में सरपट दौड़ते बच्चे फिरते रहते थे
खूब छतों मुंडेरों पर बच्चे गिरते रहते थे
पतंगों की आवारगी में आसमान छुप जाया करता था
मिट्टी की मिट्टी में रंगकर बच्चा घर वापस आता था
खूब दिवाली होती थी ईद के त्यौहार पर
अब्दुल भी रंग जाता था होली के आह्वान पर
धर्म तो तब भी था पर मतलब एक हुआ करता था
मंदिर की घंटियों में अज़ान का शौर हुआ करता था
गुरुद्वारों में श्रद्धा की एक परम्परा बहती थी
राधा मीरा बनकर के सलमा घर आया करती थी
बुज़ुर्गो के पैरों तले मुकद्दर संवर जाता था
बेटे की परीक्षा पर माँ का दिल घबराता था
अध्यापक की आवाज़ पर बच्चे कांपा करते थे
खाली समय में खेलकर हम सडकें नापा करते थे
साइकिल का वो तन्हा टायर कितनी राहों में घुमा सँग
पहला डुग्गो पिट्ठू गरम खो चुके है अपने रंग
उम्मीद का उन्माद भी तब कुछ ख़ास हुआ करता था
गिरिजा की चौखट पर भी नमस्कार हुआ करता था
अद्भुत सादा जीवन उच्च विचार थे जाने वो
कैसे दौर के अजीबों गरीब इंसान थे
कम खाते थे लेकिन बच्चों को भरपेट खिलाते थे
अपनी खाली जेबों पर भी जाने क्या सोच इतराते थे
चेहरों पर मुस्कान थी चाल में रवानी थी
पग पग आगे दौड़ती मदमस्त अड़ियल जवानी थी
अब जाने क्या हो गया है वो दौर कहीं पर खो गया है
कल का इंसान न जाने किस अंधेरें में खो गया है।