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Sudha Verma

Drama

3  

Sudha Verma

Drama

दौड़ता बचपन

दौड़ता बचपन

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याद आ रहा मुझे दौड़ता बचपन,

वह भागता बचपन।

माँ के पीछे भागते-भागते,

कब ?


तितलियों के पीछे भागने लगी,

पता ही नहीं चला।

रंग बिरंगी तितली हमेशा,

मुझे बुलाती रही।


आज भी टेबल पर बैठे-बैठे,

खिड़की से उसे देखा करती हूँ।

रंग बदल गये पर,

तितली वही है।


प्यारी सी स्वछंद उड़ती।

बकरियों के पीछे भागा करती,

तो ?

हा हा हा...

कभी अमराइयों पर आम गिराती।


तालाब को निहारा करती,

उसकी छोटी-छोटी लहरों को,

अचरज से निहारती।


याद आ रहा है माँ का डराना,

तालाब में सांकल होते हैं,

जो तुम्हे खींच लेगी।


गर्मी की दोपहरी के सन्नाटे में,

तालाब का पानी मन को खींचता तो,

सांकल का डर जाते पैरों को,

रोक लेता।


ईमली में नमक मिर्च मिलाकर बने,

"लाटा",

आज भी उसके स्वाद जीभ में है।


सूखे बेर की मुठिया,

बेल की खोटली से पानी पीना।

इन सब के पीछे भागते-भागते,

कब बचपन पीछे छूट गया ?

पता ही नहीं चला।


मैं दौड़ती रही,

स्कूल से घर तक,

घर से स्कूल तक।


कत्थक के ताल पर भी नाचती रही,

"ता थई तत् थई",

किशोरावस्था कि आहट से,

भागता दौड़ता बचपन,

ठहर सा गया।


पर यादों में आज भाग रहा है,

मन के वेग से भी आगे।

परिजात के फूल कब गिरते है ?

यह देखने हर दिन उठती,

पर देर हो जाती।


एक दिन मैं खुश थी,

आज मैंने परिजात को,

गिरते देख लिया था,

अपने हाथों से तोड़ा भी था।


टेशू के फूलों से रंग बनाती,

कौरव पांडव के पुंकेसरों,

को गिनते बचपन गुजर गया।


रत्ती के बीजों को समेटती,

ईमली के बीजों को फोड़ती,

"तीरीचौक" खेलते गुजर गया बचपन।


झिलमिलाते तारों की रोशनी को,

अचरज से निहारते गुजर गया बचपन।

कागज की नाव बह गई,

कागज का राकेट खो गया।


मिट्टी के चुल्हे टूट गये,

रेत के घरौंदे उड़ गये,

बचपन खोता चला गया,

मन के किसी कोने में,

बंद होता चला गया।


कभी कभी ऊंची लहरों की तरह,

हिचकोले लेते बाहर आ जाता।

फिर एक बार भागने दौड़ने लगता,

प्यारा बचपन मेरा बचपन।


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