दौड़
दौड़
नंगे थे जब हम बोल भी नहीं पाते
जाति-धरम का कुछ अता था न पता
खाने की कोई नियम या सूची न थी,
भीड़ जाते कभी जानवरों से
तो कभी भीड़ जाते अपने ही बीच,
अक्ल था नहीं इल्म था नहीं
इसलिए शायद वह दौड़ कहलाते
असभ्य-अमानवीय और न जाने क्या-क्या
मगर आज का दौड़ भी तो बदला नहीं
सभ्यता की चादर ओढ़े करते असभ्य काम,
अक्ल-ओ-इल्म होते हुए भी इंसान आज
दुनिया में चैन-ओ-सुकूं क़ायम करने में नाकाम,
वक्त बीतता गया युग बदलते रहे, मगर
इंसानी फितरत में ज्यादा बदलाव आया नहीं,
मकान ऊंचे-ऊंचे बनाने लगे हैं लोग मगर
बना नहीं पा रहे हैं लोग एक महज़ घर,
वैज्ञानिकों ने बहुत चीजें आविष्कार किया मगर
कर नहीं पाया ईजाद अब तक वह दौड़
जहां खुशी हो सुकून हो चारों ओर
न झगड़ा हो न फसाद ना ही ख़ून-खराबा
मिलकर सब रहे एक जुट होकर
न पुछा जाए किसी से धरम-जात अपना !
ऐसा एक दौड़ आएगा जरूर एक दिन
इंसान का इंसान ही पहचान होगा और
इंसानियत ही होगा दुनिया का मजहब !!
