दास्ताँ बीते दिनों की
दास्ताँ बीते दिनों की
दास्ताँ बीते दिनों की
खुद में उलझा सा
खामोश था मैं
कुछ कहना तो दूर
लिखना भी
बंद कर दिया मैंने
शायद वक्त
हाथ की लकीरों की तरह
आड़ी तिरछी हो गई
जहां भाग्य रेखा को
ढूंढ़ पाना
मुश्किल हो रहा
उस पल में कर्म ने
अपना चमत्कार दिखलाया
पुनः इच्छाशक्ति
जागृत होकर
ललाट कि आभा बन गई...
