चलो फिर एक बार ले चले तुम्हें वही
चलो फिर एक बार ले चले तुम्हें वही
चलो फिर एक बार ले चले तुम्हें वही....
जहाँ द्वार पर अशोक व फूलों का श्रंगार हुआ करता था,
जहाँ का आँगन हर राहगीर का मददगार हुआ करता था।
चलो देख आते हैं उस आँगन की वो खासियत आज भी है ?
क्या सामने पर्वत की वो मनमोहक रूमानियत आज भी हैं ?
चलो फिर एक बार ले चले तुम्हें वही....
जहाँ किसी कोने की चारपाई को भी इंतजार है,
जहाँ किसी दीवार के मांडने आज भी बरकरार है।
मिट्टी की भीनी-भीनी खुश्बु हवाओं में आज भी है,
उस आँगन में दफ़्न कुछ नए-पुराने राज भी है।
चलो फिर एक बार ले चले तुम्हें वही....
जहाँ लोगों में इंसानियत बाकी आज भी है,
जहाँ पंछियों का खिलखिलाना आज भी है ।
बेवक्त की दखलअंदाजीया परेशान नहीं किया करती,
जहाँ आज भी अधूरी उड़ान नहीं हुआ करती।
