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Vikas Sharma Daksh

Abstract

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Vikas Sharma Daksh

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चीखती खामोशियाँ

चीखती खामोशियाँ

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चीखती खामोशियाँ हैं, इस दर-ओ-दिवार में,

बसी फ़क़्त तन्हाईयाँ हैं, मेरे उजड़े दयार में,


इन हालात का सिर्फ मुझे ज़िम्मेदार बता गया,

हमदर्दी भी तो ना थी तबियत-ए-ग़मगुसार में,


झूठी तसल्ली देने आते हैं तमाम हसद के मारे,

उम्मीद किस सूरत नज़र आये मुझे अज़ादार में,


लब-ए-चारागर से इक हर्फ़ सुनने से क्या होगा,

शायद आएगा कुछ आराम बोस-ओ-कनार में,


बेदम-ओ-बेज़ार हुआ वो चल कर बस दो गाम

होता ही कौन है हमसफ़र इस रास्ता-ए-दुश्वार में,


सवालिया निशान लगा दिया हम आधे-अधूरों पे,

तेरी बज़्म पूरा उतरा है कौन, इश्क़ के म्यार में,


'दक्ष' नामुमकिन कि उलझे ना हमसे दामन-ए-यार,

गुलों ने तो हमेशा ली है पनाह दरख्त-ए-खारदार में,



तबियत-ए-ग़मगुसार = दर्द बांटने वाले की प्रक्रृति ; हसद = ईर्ष्या ; अज़ादार = मातम करने वाला ;

लब-ए-चारागर = इलाज़ करने वाले के होंठ ; बोस-ओ-कनार = प्रेमियों की अंतरंग बातें ;

बेदम-ओ-बेज़ार = थका और मायूस ; गाम = क़दम ; रास्ता-ए-दुश्वार = कठिन राह ;

म्यार = मानक /standard ; दरख्त-ए-खारदार = कांटेदार पौधा


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