छुटकारा
छुटकारा
आजकल कुछ ऐसा चलन हो रहा है
कि अक्सर घरों में बंद
हवा की घुटन से,
भिनभिनाती आवाज़ों से,
सुगबुगाती सांसों से,
छुटकारा पाने को
हम उतर आते हैं सड़कों पर,
निकल पड़ते हैं
दूर क्षितिज की ओर
अपने हिस्से के कुछ पल ढूंढने को।
गहराता अंधेरा अपनी कूची से
अनोखे चित्र बनाता है,
किसी के हिस्से में आता है खंडर,
किसी के सामने होती है
तालाब पर झुकती, लहराती
पुराने पेड़ की शाखें,
तो कोई पाता है अपना सा लगता खालीपन।
हवाओं में ठहरता है सन्नाटा,
और सन्नाटे में तैरता है
सरसराती, फुसफुसाती और कभी खिलखिलाती
आवाजों का सम्मोहन।
धीरे – धीरे उभर आती हैं परछाइयां
खंडर की खिड़कियों पर,
खुले दरवाज़ों पर,
लहराती हैं
पानी पर झुकती डालों पर,
तैरती हैं हवाओं में
और नाचने लगती हैं वीरान सड़कों पर।
फहराते पैरहन के कोटरों से झांकती
चमकती, सुलगती आंखें
उन अशरीरी सायों से निकल कर
हमें चीरती निकल जाती हैं,
शरीर में एक ठंडी सिहरन भर जाती हैं।
इस सिहरन को थामे
हम लौटते हैं
उन्हीं वीरान रास्तों से,
उन्हीं घरों को,
जिनसे छुटकारा पाने निकले थे
देर शाम को।
हर खिड़की, हर दरवाज़े पर
जलते दीये सुलगती आंखों से लगते हैं।
सिहरन, हमारे शरीर को चीरकर
फ़िर हवा में घुल गई है।
अशरीरी साये ख़ुशी से नाचने लगे हैं
मानो कह रहे हैं
अपनी परछाई से कैसे छुटकारा पाओगे !